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दिल्ली में बीजेपी का पसमांदा दांव नहीं दिखा पाया सियासी कमाल

नई दिल्ली । पीएम मोदी के सबका साथ, सबका विश्वास वाले मूल मंत्र को लेकर बीजेपी चलने की बात करती है। केंद्र की मोदी सरकार की नीतियों और योजनाओं का लाभ भी मुस्लिम समुदाय को बराबर से मिल रहा है, लेकिन मुस्लिमों के वोट बीजेपी को क्यों नहीं मिलते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि बीजेपी आखिरकार मुस्लिमों का विश्वास क्यों नहीं जीत पाती है? भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) मुसलमानों के बीच अपनी छवि सुधारने की लगातार कवायद कर रही है। पार्टी ने मुसलमानों में सबसे ज्यादा आबादी वाले पसमांदा समाज के जरिए सियासी आधार बनाने का लक्ष्य बनाया था। पार्टी 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले से पसमांदा मुस्लिमों के बीच सियासी पैठ जमाने की कोशिश में है, लेकिन जमीनी स्तर पर सियासी प्रभाव नहीं दिख रहा है। दिल्ली चुनाव में मुस्लिम बहुल मुस्तफाबाद सीट पर बीजेपी जरूर जीतने में सफल रही है, लेकिन मुसलमानों की बदौलत नहीं बल्कि मुस्लिम वोटों के बिखराव के बुनियाद पर उसे जीत मिली। ऐसे में सवाल यह उठता है कि बीजेपी आखिरकार मुस्लिमों का विश्वास क्यों नहीं जीत पा रही है केंद्र शासित प्रदेश में मुसलमानों की आबादी करीब 13 फीसदी है और 10 विधानसभा सीटों पर हार-जीत की भूमिका अदा करते हैं। दिल्ली की 7 सीटों पर मुसलमानों की आबादी 30 फीसदी से 60 फीसदी के बीच है। मटिया महल, ओखला, मुस्तफाबाद, बाबरपुर, सीलमपुर, बल्लीमारान और चांदनी चौक सीट पर मुस्लिम मतदाताओं की अहम भूमिका रहती है। इन सीटों पर हुए मुकाबले में एक सीट मुस्तफाबाद में बीजेपी प्रत्याशी मोहन सिंह बिष्ट को जीत मिली जबकि अन्य सीटों पर आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार जीते। इस तरह मुस्लिम वोटों का भरोसा आम आदमी पार्टी के साथ बना रहा, जबकि बीजेपी कुछ खास मुस्लिम वोट हासिल नहीं कर सकी। बीजेपी के तमाम बड़े नेता दावा कर रहे हैं कि दिल्ली चुनाव में इस बार मुस्लिमों का वोट उनकी पार्टी को मिला है, लेकिन कितना वोट मिला है। इसका जवाब कोई नहीं दे रहा। मुस्लिमों के वोटिंग पैटर्न को लेकर मुस्तफाबाद विधानसभा सीट का विश्लेषण किया, जहां पर बीजेपी प्रत्याशी मोहन सिंह बिष्ट विधायक चुने गए। इस सीट के नतीजे को लेकर सीएसडीएस से जुड़े प्रोफेसर हिलाल अहमद कहते हैं कि मुस्लिम वोटों के बदौलत बीजेपी नहीं जीती बल्कि मुस्लिम वोट बंटने के वजह से जीत मिली है। दिल्ली चुनाव में मुस्लिम उम्मीदवारों को देखकर वोट देने के बजाय बीजेपी को सत्ता में आने से रोकने की रणनीति पर ही वोट करते नजर आए। इसी का नतीजा है कि दिल्ली की मुस्लिम बहुल मुस्तफाबाद सीट छोड़कर बाकी सभी मुस्लिम सीटें आम आदमी पार्टी जीतने में कामयाब रही। हिलाल अहमद के मुताबिक, दिल्ली में महज 6 से 7 फीसदी मुस्लिम वोट ही बीजेपी को मिल सके हैं। मुस्लिमों का इतने वोट तो हमेशा से ही बीजेपी को मिलते रहे हैं, लेकिन पसमांदा मुस्लिमों को लेकर जिस तरह से पार्टी ने सियासी तानाबाना बुना था, वो पूरी तरह से फेल रहा। पसमांदा एक फारसी शब्द है, जो पस और मांदा से मिलकर बना है। पस का अर्थ-पीछे होता है और मांदा का अर्थ-छूट जाना। इस तरह से इसका अर्थ है कि कोई व्यक्ति विकास के मामले में पिछड़ गया हो। ऐसे में मुस्लिमों में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े तबके को पसमांदा कहा जाता है। मुस्लिमों की कुल आबादी में पसमांदा मुस्लिमों की तादाद 80 से 85 फीसदी के बीच मानी जाती है और 15 फीसदी सवर्ण मुस्लिम है, जिनको अशराफ मुस्लिम कहा जाता है। पसमांदा मुस्लिम समाज में ओबीसी, अति-पिछड़ी और वंचित जातियां आदि शामिल होती हैं। इसमें धोबी, अंसारी, कुरैशी, नाई, तेली, बढ़ई, रंगरेज, दर्जी, धुनिया, फकीर, गुर्जर, कुंजड़ा और घाड़े जैसी तमाम जातियां शामिल हैं। बीजेपी की तरफ से इन पसमांदा लाभार्थियों तक पहुंचने और उनके बीच सियासी बनाने का प्रयास चल रहा है। बीजेपी पिछले 2 सालों से पसमांदा मुस्लिमों को जोड़ने के लिए तमाम कार्यक्रम और योजनाओं के साथ चल रही है, लेकिन उसके बाद भी पसमांदा मुस्लिमों का वोट बीजेपी को नहीं मिल पा रहा है। दिल्ली के मुस्तफाबाद विधानसभा क्षेत्र के मुस्तफाबाद मंडल सीटों का उदाहरण लेते हैं, मुस्तफाबाद मंडल में 60 हजार कुल वोटर्स हैं, जिनमें 202 मतदाता हिंदू है बाकी सभी मुस्लिम वोटर्स हैं। मुस्लिम वोटर्स में पसमांदा मुस्लिम बड़ी संख्या में हैं, जिसमें तकरीबन 23 हजार सैफी (बढ़ई), 20 हजार मलिक (तेली), 12 हजार अंसारी (जुलहा), तीन हजार कुरैशी और 15 सौ शिया मुस्लिम हैं। मुस्तफाबाद मंडल सीट पर कुल 55 बूथ केंद्र हैं, जिसमें 60 हजार वोटों में से 42 हजार वोट पोल हुए थे। आम आदमी पार्टी को सबसे ज्यादा 22,374 वोट मिले तो एआईएमआईएम के ताहिर हुसैन को 11,728 वोट मिले। कांग्रेस के खाते में 2,593 वोट आए जबकि बीजेपी को महज 508 वोट ही मिल सके हैं।

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