हेलीकॉप्टर को ट्रैक्टर बनाया, 251 रैलियां की, तब भी RJD को सीटें 4

बिहार में 80 दिवसीय लंबे राष्ट्रीय सत्ता संग्राम का संपन्न हो चुका है। पक्ष-विपक्ष जनादेश की परिभाषा अपने-अपने अंदाज में गढ़ रहा है। नतीजों ने विपक्ष को संजीवनी दी है तो सत्ता पक्ष को सांत्वना। दो ध्रुवीय सत्ता की जंग में विपक्षी गठबंधन के सेनापति तेजस्वी यादव थे। नौ सीटों पर इंडिया गठबंधन की जीत ने उन्हें नई ऊंचाई और उर्जा अवश्य प्रदान की है। लेकिन, यह भी उतना ही सच है कि उड़नखटोला से ताबड़तोड़ सभाएं कर ही कोई सियासी जंग नहीं जीती जा सकती।
उन्होंने सभाएं करने का रिकॉर्ड तो कायम कर लिया, लेकिन कभी पीछे मुड़कर यह जानने की कोशिश नहीं की कि मैदान में इंडिया गठबंधन की सेनाएं मोर्चे पर एकजुट हो पाई हैं या नहीं? आपसी समन्वय किस तरह का है? साथी दलों में तालमेल का तंत्र विकसित हो पाया या नहीं? इसके अलावा उनकी जिद ने भी बड़ा नुकसान किया। कहावत है त्याग तले ताज होता है।
तेजस्वी ने जंग में जाने से पहले राजद के परंपरागत समीकरण को विस्तार देने का ऐलान किया। कहा कि अब माई ही नहीं बाप (बहुजन, अगड़ा, आधी आबादी और गरीब) को भी साथ लेकर चलेंगे। इस दिशा में उन्होंने ठोस पहल भी की। सीटों में कुशवाहा समाज को ज्यादा हिस्सेदारी और मुकेश सहनी की पार्टी वीआईपी को साथ लाकर अपने समीकरण को विस्तार दिया। आधी आबादी से सबसे अधिक उम्मीदवार बनाए। टिकट बांटने में सवर्ण और वैश्य समाज को भी हिस्सेदारी दी।
लेकिन, ऐसे तमाम प्रयासों के बावजूद एनडीए की सटीक रणनीति और प्रबंधन कौशल के सामने वह टिक नहीं पाए। एनडीए ने जिस तरह बड़े नेताओं की सभाएं कराकर माहौल अनुकूल करने के बाद उसे बनाए रखने के मोर्चे पर सधी रणनीति से काम किया, वैसा इंडिया गठबंधन में नजर नहीं आया। सेनापति होने के नाते तेजस्वी की यह बड़ी चूक थी।
एनडीए ने कई स्तरों पर प्रचार अभियान चलाया। गठबंधन के नेताओं को सामाजिक समीकरण के आधार पर अलग-अलग इलाकों में तैनात रखा। इन सबके अलावा उसके तमाम नेता विभिन्न स्रोतों से फीडबैक लेते रहे। तेजस्वी चुनावों में जुटने वाली भीड़ से इतने आत्ममुग्ध रहे कि उन्होंने मीडिया से भी सिर्फ बाइट देने तक का ही सरोकार रखा। उनके करीबी नेताओं में भी ऐसी ही आत्ममुग्धता रही। उनकी कोर कमेटी के नेताओं में यह कमी ज्यादा नजर आई। उन्होंने अपने ही दल के पुराने दिग्गजों से मंत्रणा करने तक की भी कोई जरूरत महसूस नहीं की।
ऐसा संभवत 2020 के विधानसभा चुनाव में इसी अंदाज से लड़कर सफलता पाने के अनुभव से भी हुआ। लेकिन, अगर ऐसा कोई निष्कर्ष राजद ने निकाला होगा तो उस समय की परिस्थिति को नजरअंदाज करना घातक साबित हुआ। उस चुनाव में जदयू भ्रम की सियासत का शिकार हुआ था। चिराग पासवान एनडीए से बाहर प्रधानमंत्री का हनुमान बनकर जदयू के खिलाफ लड़ रहे थे। भाजपा के नेताओं को बड़ी संख्या में उसने जदयू के खिलाफ अपना उम्मीदवार बनाया। नतीजतन एनडीए भ्रम का शिकार हुआ। इसका भी लाभ राजद के नेतृत्व वाले गठबंधन को मिला।
पप्पू यादव ने कांग्रेस में शामिल होने से पहले राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव से शिष्टाचार मुलाकात की। इसके बावजूद जब उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर पूर्णिया से लड़ने की इच्छा जताई तो तेजस्वी ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का मुद्दा बना लिया। कांग्रेस को यह सीट देने से साफ मना कर दिया। इतना ही नहीं, पूर्णिया में राजद प्रत्याशी की संभावना धूमिल होते देख वहां जाकर यह आह्वान तक कर दिया कि अगर राजद को वोट नहीं देना है तो एनडीए प्रत्याशी को दे दीजिए।
चुनावी समर में इस तरह ऐसी अपील संभवत किसी बड़े नेता ने पहली बार की होगी। इसका नुकसान राजद को न केवल पूर्णिया, बल्कि अररिया, मधेपुरा और सुपौल में भी बड़े स्तर पर हुआ। ऐसी जिद राजनीति में अक्सर नुकसान ही देती है। राजनीति की मान्यता तो यह है कि यहां कोई किसी का न स्थायी दोस्त होता है और न दुश्मन। परिस्थितयां ऐसे रिश्ते बनाती हैं।
बहरहाल, चुनाव में उनके नेतृत्व में इंडिया गठबंधन के बिहार में प्रदर्शन को कमतर नहीं आंका जा सकता है। एनडीए को तीन चौथाई सीटें अवश्य मिली हैं, लेकिन ज्यादातर सीटों पर उसकी जीत का अंतर कम हुआ है। अनेक सीटों पर बहुत कम अंतर से जीत मिली है। राजद समेत इंडिया गठबंधन के दलों के वोट प्रतिशत में इजाफा हुआ है। एनडीए को पूरी ताकत झोंकनी पड़ी। इंडिया गठबंधन की इन तमाम उपलब्धियों का सेहरा तेजस्वी यादव के सिर ही बंधा है। तेजस्वी के पास नीतीश कुमार के साथ चुनाव लड़ने का अनुभव भी है। अगर उन्होंने उससे भी सीख ली होती तो हो सकता है, आज तस्वीर दूसरी होती।
